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संदेश

अप्रैल 23, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वेक उप(up)

मैं उठता हूँ तेरे ख्यालो से तेरे सीख से तेरे चाय से मैं उठता हूँ तेरे संस्कार से तेरे आवाज़ से तेरे प्यार से मैं उठता हूँ अपने माँ से उसके त्याग से उसके बलिदान से

देश भक्ति

धरती के रंग में रंग गए  जो , वो सिंह, सुख और राज थे । तीनो ने जो कर दिखाया लाज बचाई माँ की,  हँसी खुशी फांसी चढ़ गए जो  वो धरती के  लाल थे । रंग गए जो भक्ति के रंग में  सिंह , सुख और राज थे।

प्यासा हूँ

इश्क़ का तो पता नही मगर इश्क़ की तलाश में भटकता राही हूँ, हर किसी से मिल जाता हूँ इश्क़ हूँ फरेबी नहीं, राही इश्क़ से जानिए या इश्क़ से बस प्यासा हूँ प्यासा हूँ प्यास हूँ

तुम तक

तुम्हारी नामौजूदगी में हमने साहित्य को चुन लिया, अब तो इसी से हर बाते होती है, शिकवे, गिले, और इश्क़ भी, मगर जानती हो, इस तक पहुँचने के लिए भी न मुझे तुमसे होकर गुजरना ही पड़ता है, और मेरा इश्क़ हर रोज़ जवां हो उठता  है।

त्याग

बाबा जो ऐसे देखन मैं रोज़ पढने को जाई उसे कितनी पीड़ा सही ये एहसास मोहे रास न आयी, मैं पढ़ के जग नाम कमाऊ बाबा ये आश लगायी उसे कितनी पीड़ा सही ये एहसास मोहे रास न आयी।

चुपके से

अच्छा सुनो ये जो तुम चुपके चुपके मेरे वॉल पढते हो न इश्क़ की पहली सीढ़ी है थोड़ा सम्भल कर चढ़ना कही गिर गए न तो ..... तो क्या... तो मैं भी गिर जाऊंगी... समझे तुम... और हां सुनो.. जब एक बार आ जाओगे न तो जाना नही छोड़ कर.... वैसे भी सब चले जाते है ...... अगर तुम गए न तो मेरी साँसे भी लेते जाना ... समझे तुम...

सच

ये जो तुम कहते हो न कि मेरी उम्र बढ़ रही है मैं आगे बढ़ रहा हूं मगर सच तो ये है कि तुम मौत की ओर जा रहे हो धीरे धीरे कुछ दर्द लेकर तो कुछ मीठा दर्द लेकर तुम तो आज भी सन्देह में जी रहे हो सत्य से जिस दिन अवगत हो गए न तुम उस दिन से ये मोह, माया त्याग कर सिर्फ प्रेम करोगे प्रकृति से।

गिरना

क्यूँ शोहरत के शाख से ही क्यों नज़रों से भी तो गिरते है लोग चरित्र से भी तो गिरते है मगर इनका गिरना , गिरना नही होता क्या ? चढ़ने के लिए गिरते ही है लोग अब धीरे से हो या तेज़ी से शायद इसमें थोड़ी बहुत ठहराव आ जाये तो शायद बच सकते है शोहरत शाख से भी और नज़रों से भी

रचना काव्य की

तुम खुद एक काव्य हो और काव्य की रचना करना कितना अच्छा होता है न, न जाने कितने सवालों के घेरो से तुम्हें होकर जाना होता सबका ख्याल रखना होता , खुद का भी और काव्य का भी देखो तो कितना सुंदर लगता जब कोई काव्या, एक काव्य के रचना करती है तो मानो जैसे धरती पर चांद उत्तर आया हो अच्छा सुनो, तुम न ऐस ही लिखते रहना रचना करते रहना सबकी , अपनी और मेरी भी । ये जो शब्दों से पिरोकर तुम एक माला बनाती हो न वो अपने आप मे ही एक अनूठा रचना होती है और इस रचना को पढ़कर न जाने कितने लोग दोनों के दीवाने हो जाते है,तुम ऐसे ही रचते रहना, गढ़ते रहना नई नई रचनाओ को अपने अंदर और फिर एक नई काव्य की रचना करना। ठीक है न ।

आवारगी

आवारगी की भी हद थी न तो अपना जाना न पराया जिसने सिखाया था चलना आज उसी की कर बैठा अवहेलना मन की चेतना कही मर मिटी है उसकी तभी तो पल पल आवारगी में वो सब भूल बैठा है कौन अपना कौन पराया

बातों का सिलसिला

बातों का सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा जबतक सफर में रहूँगा धीरे-धीरे आहिस्ता-आहिस्ता तेरे करीब आकर तुझसे बहुत कुछ कहूँगा जबतक......... कबतक दूर जाओगे मुझसे , तेरी बातें तेरी ख़्वाब के साथ आता जाता रहूँगा जबतक ........ नदी की धार जैसी, झरनों की धार जैसी तुम्हे छूता हुआ आता जाता रहूँगा जबतक सफर में रहूँगा

सिगरेट जैसी तुम

मैं किसी सिगरेट सा, तुम किसी धुंआ सी मैं तुझको पीता गया तू कुछ उड़ी कुछ  अंदर ही अंदर गलाते गयी मैं पीता रहा मैं पीता रहा और देख मेरी क्या हालात हो गयी। तू जीते रही मैं मरता गया..... ~~~मिन्टू

जाने के बाद

तुम्हारे जाने के बाद मैं तो हर रोज़ बनता बिगड़ता गया खिलता गया, मुरझाता गया टूटता गया, बिखरता गया तुम्हारे जाने के बाद मैं तो हर रोज़ बनता बिगड़ता गया मगर न आजतक बन पाया न बिगड़ पाया और देखो न आज भी उसी राह पर खड़ा हूँ... बनने और बिगड़ने के लिए।।।।

इज़ाज़त

बैठे है हम वहाँ, जहाँ तेरी अनुमति की ज़रूरत है अगर दे सको कुछ देर और ठहरने की इजाज़त तो हम कुछ कलाकृति प्रस्तुत करेगें, कुछ तस्वीर बनेगी मेरी कुछ तस्वीर बनेगी तेरी दो अधूरे तस्वीर को पूरा करने की स्वीकृति तो दो जैसे शिव और पार्वती की बनी थी अंतर्मन से, पवित्र और पाक।

काव्यांजलि

प्रेम चलते चलते कविता के पास आई, कविता उदास सी बैठी कहानी के पास गई हुआ कुछ यूं उन्हें पसंद न आई कोई गाना तो वो बच्चों संग रंग में रंग गयी तन से न थकी , पर मन से थक गई उसे मिला एक ख्याब जो हमेशा लिपटा रहता था चंदन के साथ और चंदन की गमक इतनी तेज उसके पास और भी लोग आये और हुई फिर एक काव्य की रचना जिसे हम काव्यांजलि के नाम से जानते है

सोच तुम तक

सुना है,        वो बहुत खूबसूरत है, संगमरमर जैसी तराशी गयी है उसपर नक्काशी... अगर मैं ये कहूँ की वो नायाब तोहफा मैं हु तो? चल झूठी..... और फिर उसने अपने बदन पर लगे चोट दिखाए... अब वो आज भी स्तब्ध है, और उसे उसी तरह चाहने लगा.. पवित्र गंगा की तरह निर्मल और स्वच्छ भाव से ।

माँ प्रेम 3

माँ आमों की बगीया में कभी खिलाया करती है आज खिलाने की मेरी बारी है, घर का लाडला  हूँ और सफ़र करता भी हूँ क्यों कि हिम्मत जारी है, उन गलियों में लड़ते झगड़ते जब भी घर आया करता था, तुम खड़ी रहती थी, आज खड़े रहने की मेरी बारी है, पल पल अपने अश्रु से भिगोए तुमने आँचल है, आज उस लोर को पोछने की मेरी बारी है, ममता हर बार छलकाती थी जो उसपर प्यार बरसाने की अब मेरी बारी है, माँ आमों की बगीया में कभी खिलाया करती है आज खिलाने की मेरी बारी है । ~~मिन्टू🙏🏻😭

चयन

चयन,  उम्र के साथ बदलती गई, बढ़ती गई दूरियां तो नज़दीक आती गई  मजबूरियां, सच से टूटता गया नाता तो झूठ से जुड़ता गया, चेहरा मासूमियत पर मिटती थी जो अब दिखावे  पर आ रुकती है चयन, उम्र के साथ बदलती गई । ~~~मिन्टू

उम्र बीते

अब बीते, तब बीते, अबके बरस जब बीते, उन यादों के गलियों से होकर ये उम्र बीते, मीत मिले , जीत मिले, वो संगीत मिले, उस लय उस ताल से मनप्रीत मिले । ~~मिन्टू

ज़िन्दगी- एक दौड़

जिंदगी की दौड़ में कुछ आगे आये तो कुछ पीछे छोड़ आये रिश्ते बस अब तो हमेशा कुछ पाने की ललक रहती है शायद फिर से जीरो की ओर बढ़ने लगते धीरे धीरे... और तरक्की करवाते है किसी और कि ज़िन्दगी की या फिर यूँ कहे उन्हें भी जीरो से उठाकर फिर से जीरो पर पहुंचाने की एक नाकामयाब कोशिश करते है।

रचना तुम्हारी

वो लठ थी वो हठ थी वो मेरे मन की मठ थी मठ में रहता था उसका प्रेम, उसका जीवन रस, मठ में रहता था एक योगी जिसको प्रेम था उस मठ पर राज करती राजकुमारी से धीरे धीरे ये बढ़ता गया निरंतर बिना स्वार्थ के अनंत तक और मन के मठ  में एक विशालकाय रूप बन बैठा था उसकी हठ , उसकी लत वो मन की मठ.....

दोस्ती का रंग

जब देखना हो बता देना पास से गुजर जाऊंगा तेरे हवा के साथ साथ कुछ खुश्बू बिखेरता हुआ चूमता हुआ गुजर जाऊंगा घर से तेरे.....

प्रेम ओम

जो मुझे पसंद है वो कभी गुनगुनाओ तो सही कोई बात और हो तो बताओ तो सही तेरे उस श्रृंगार से अक्सर दूर ही रह हूँ जब पास आऊं तो वो श्रृंगार करके दिखाओ तो सही ।

माता का द्वार

आज दर पर गया था तेरे कोई मुराद नही थी गर कभी हुई तो क्या पूरा कर पाओगे, माना कि कई खामियां है मुझ में मगर क्या पूरा कर पाओगे, कई गलतियां हुई होगी अभीतक के जीवन के सफर में मगर क्या कभी क्षमा कर पाओगे, ???

कल्पना- मन की

मन एक समुंदर है जहाँ उथल-पुथल होते रहती है, सोच की धारा बहते रहती है, कभी तेज़ तो कभी धीमी रफ्तार पकड़े हुए, एक दूसरे को बहाते हुए एक जगह से दूसरे जगह पहुँचते हुए, किसी तरह एकांत या स्थिर होती है और फिर एक नए सैलाब के तलाश में रहती है।

रिश्ते

बदलते रिश्तों के डोर , बदलते सोच का बागडोर, कही ये भी तो मौसम की ही तरह है न, देखो न बदलने के साथ साथ पीछे छोड़ते जाते है अनमोल तोहफे ज़िन्दगी का और तो और जोड़ते है नए रिश्ते वो भी चंद महीनों के लिये तो ये भी तो  मौसम की ही तरह हुए न, मिज़ाज़ भी तो बिल्कुल वैसी ही है  दिन के साथ चढ़ते उतरते बदलते कई रंग जेठ में अलग ,आसार में अलग सावन में झिमझिम करते तो ये भी तो मौसम के ही तरह है न ..... बस सब मिलाकर बात एक ही है ज़िन्दगी जो है न वो बदलते मौसम की तरह ही है। ~~~~

तस्वीर बनाने की कोशिश

जो कभी  छोड़ गयी थी तन्हा, आज तेरी तस्वीर भी बगावत कर गयी, बनाना चाहता था उस रात की तरह तुझे, मगर देखो न तुम न बन पायी  उस रात की तरह । ~~~~मिन्टू

प्रेम लगाव

न जाने क्यूँ न चाहते हुए भी खिंचा चला आ रहा तेरी ओर, अपनी मंज़िल से भटकता हुआ, ठोकर खाता हुआ, कुछ अल्फ़ाज़ निकालते हुए, तो कुछ रचना करते कविताओं की जो अक्सर तेरे होने का सवाल छोड़ जाता है ।

तुम्हारी याद में

क्या तुम मेरी कविता बनोगी, क्या तुम मेरी ग़ज़ल बनोगी, क्या तुम मेरी शायरी बनोगी, या फिर यूं कहूँ क्या तुम मेरी बनोगी, क्या तुम मेरे संग संग चलोगी, क्या तुम मेरी परछाई बनोगी, या फिर यूं कहूँ क्या तुम लता बन पाओगी, क्या तुम नदी की धार बनोगी, क्या तुम ठंड में सूर्य बनोगी, या फिर यूं कहूँ .......... मुझे अकेला तो छोड़ न जाओगी.... उसी अमावस्या की रात की तरह..... क्या हुआ कुछ तो बोलो प्रिये... ऐसे कस्तूरी न बनो... बात अंदर रखकर... जगह जगह न ढूंढ़ते फिरो... अपने मुख से ये राज़ तो खोलो प्रिये...... क्या तुम आओगी..... मेरी कविता, मेरी ग़ज़ल, मेरी शायरी, मेरी परछाई बन पाओगी....

बचपन

ये तो नियति की देन है, कभी चुलबुली सी है तो, कभी मासूमियत से भरी, कभी गुनगुनाते हुए अकेले तो , कभी बेजुबान जान के साथ, ये तो नियति की देन है, कभी अपने सपनो को बुनते हुए, तो कभी उसे बाहों में समेटे हुए, कभी इशारों में तो कभी कानों में फुसफुसाते हुए, ये तो नियति की देन है......

कुम्भ

आओ तुम्हे एक छवि दिखाए, चले चलो कुम्भ नहाए। आओ तुम्हे परंपरागत विधियो से अवगत कराएं, चले चलो कुम्भ नहाए। आओ तुम्हे अपनी संस्कृति दिखाए, चले चलो कुम्भ नहाए। आओ तुम्हे साधुओं के दर्शन कराए, चले चलो कुम्भ नहाए। आओ तुम्हरे पाप धुलवाए, चले चलो कुम्भ नहाए। आओ चले उस सृंगार से सज जाए, चले चलो कुम्भ नहाए। आओ चले पवित्र नगरी , संगम में रम जाए, चले चलो कुम्भ नहाए।

ठहर सको

अभी थोड़ा पीछे गया हूं, जो साथ चल सको तो ठहरो अभी थोड़ा वक्त लगेगा तुम तक आने में, जो तुम ठहर सको तो ठहरो वक़्त साथ दे रहा कभी कभी, तुम जीवन भर साथ दे सको तो ठहरो मेरा प्रेम तो तुम तक ही सीमित है, जो तुम अनंत तक चल सको तो ठहरो आशियाना बनाएंगे कविताओं की, जो तुम कविता बन सको तो ठहरो कोई इल्ज़ाम लग जाये मुझपर, जो तुम संभाल सकोगी तो ठहरो साथ रहेगा सदैव मेरा, जो तुम खेवइया बन सको तो ठहरो अभी थोड़ा वक्त लगेगा तुम तक आने में, जो तुम ठहर सको तो ठहरो अभी थोड़ा पीछे गया हूं, जो साथ चल सको तो ठहरो।।

तुम्हारी कल्पना

कमाल है इसका डुबना भी न , जो एक रंग खूबसूरती का दे जाता है ठीक तुम्हारी मुस्कान की तरह न, और फिर भी कहती हो कि मैं(स्त्री) कुछ भी नही। कमाल है इसके आस पास भी खूबसूरती दे जाती हो, लालिमा, सुंदर दृश्य और मनमोहक छटा और फिर भी कहती हो कि मैं(स्त्री) कुछ भी नही। कमाल है इतराना तेरा बादलों के बीच मे, बारिशों के साथ मिलकर इंद्रधनुष का निर्माण तेरा, और फिर भी कहती हो कि मैं (स्त्री) कुछ भी नहीं।

मैं इश्क़ में हूँ

तुम्हारी बिंदी खूब भा रही क्यों कि मैं इश्क़ में हूँ तुम्हारी काजल नज़र उतार रही क्यों कि मैं इश्क़ में हूँ तुम शर्मा रही तुम्हारी आँखे कुछ बता रही क्यों कि मैं इश्क़ में हूँ तुम्हरी बातें हो रही ये मुस्कान बता रही क्यों कि मैं इश्क़ में हूँ, तुम्हारी होंठो की लाली गहरा रही क्यों कि मैं इश्क़ में हूँ तुम सज रही ये ख्यालात बता रही क्यों कि मैं इश्क़ में हूँ ।

समझ रहे हो न तुम

मेरे हर अल्फ़ाज़ सिर्फ तुम्हारे लिए है...... समझ रहे हो न तुम देखो गुस्सा न होना मुस्कुरा देना मैं समझ जाऊंगा तुम तक पहुंच गई है मेरी बात हालात जो भी हो तुम अपने जगह सही , मैं अपने जगह देखो गुस्सा न होना मुस्कुरा देना मैं समझ जाऊंगा तुम तक पहुंच गई मेरी बात तुम जवाब में कुछ भी लिख दो मगर जवाब न देना ये शायद अच्छा न लगे या मना कर देना कि संदेश न दो मुझे देखो गुस्सा न होना मुस्कुरा देना मैं समझ जाऊंगा तुम तक पहुंच गई मेरी बात मेरे हर अल्फ़ाज़ सिर्फ तुम्हारे लिए है...... समझ रहे हो न तुम देखो गुस्सा न होना मुस्कुरा देना मैं समझ जाऊंगा तुम तक पहुंच गई है मेरी बात ~~~~मिन्टू

माँ प्रेम 2

तेरी आँचल की छांव में पला हूँ मैं टूटकर बिखरा नही हूँ मैं मज़बूत रहूँगा तेरी ही तरह क्योंकि तेरा ही वजूद हूँ मैं  - मिन्टू

माँ प्रेम 1

अभी तो टूटकर जुड़ना सिखा ही था की फिर से टूट गया, छलका जो आंखों से उसे घूट घूट कर पी गया, वैसे दफ़्न है सीने में कई अल्फ़ाज़ गर निकलने की कोशिश भी हुई मगर उसे भी दफ़्न कर गया, तू ये न समझना हुआ क्या है बस समझना शांत समंदर सा हो गया 

मुझे समझ पाती

तुम तो मुझे लेखक ही समझते रह गए शायद कभी मेरी शब्दों को समझा होता तो शायद मैं आज तेरे दिल के दरबार मे  तानसेन होता, तुम मुझे छेड़ पाती हर बार एक नया आलाप लगाती, तुम्हरा जब मन करता तो तुम मुझे सुन पाती गहराई से, मुझे समझ पाती मन की परछाई से । ~~मिन्टू

ज़िन्दगी एक सच्चाई

कल तक जो सुनाया करते थे ज़िन्दगी का सफ़रनामा वो आज सफर में हो गए, कल तक जिसे चाहा था सबसे ज्यादा वो आज नदारत हो गए, कल तक जो मुस्कुराते थे मेरी बातों से वो आज मुस्कान छोड़ गए, समझता था जिन्हें अजीज वो आज मतलबी हो गए, शायद ये ज़िन्दगी का सफर का सफ़रनामा ही तो है जो सीखा गए सत्य कथन शायद ये बात समझ आये देर से तुम्हे और यही सच्चाई भी है समझ रहे हो न तुम

एक सवाल

चलो दूरी ही सही अब तो सुकून से रह रहे होंगे न तुम इस सुनशान जगह छोड़ कर पल भर की खुशी पल भर का साथ पल भर का गम देखर, चलो दूरी ही सही अब तो खुश होंगे न तुम न तुम्हे कोई परेशान करेगा न ही सवाल का जवाब मांगेगा न ही बातें होंगी बोलो न चुप क्यों हो तुम ? चलो दूरी ही सही अब तो अपने मंज़िल को चुमोगे न तुम अपनी हस्ती तो बना लोगो न तुम बोलो न चुप क्यों हो तुम ?

एहसास

कभी उन सजती हुई दीवारों पर मेरी ज़िक्र तो हो, माँ हूँ तुम्हारी कभी तुझे मेरी फिक्र तो हो, अपनी ज़िंदगी जप तप से तुझपे कर दिया कुर्बान कभी तो उसकी भी इस पन्नो पर ज़िक्र तो हो, माना कि वो तुम्हारी हमसफ़र है, मगर इस सफ़रनामा का भी तो तुम्हे फिक्र हो कभी उन सजती हुई दीवारों पर मेरी ज़िक्र तो हो।

चाय और इश्क़

चस्का तेरा हो या फिर चाय का नशा, दोनों में उतना ही है.. जब तुम नही होती तो ये नशा चाय दे जाती और जब चाय नही होती तो तुम ... दोनों में वही मिठास वही कड़कपन है जितना वो खौलती उतना तुम दोनों का इश्क कभी जब भी बेपनाह होता थोड़ा तुम जलती थोड़ा चाय जलता... दोनों की आवारगी क्या खूब लगती एक सोती हुई ख़ूबसूरत लगती तो एक खौलते हुई... दोनों को जब भी प्यार से पीने की कोशिश की तो सब ठीक था जैसे जल्दी में पीनी चाही तो एक ने जीभ जलाई और एक ने कपड़े

क्रोध

निकलते धार सी जो तुम गुस्सा दिखाते हो न, वो भी इसी की तरह है एक जगह से दूसरे जगह जाती हुई हरे भरे ख्यालो से निकलते हुए, मन के पहाड़ो चट्टानों से होते हुए, वो भी किसी शांत समंदर में जा गिरती है, और  लंबे अरसे तक लहरों की लहर झेलती हुई, फिर से तूफान का रूप ले लेती है न जाने कितनो के घर तबाह कर जाती है, कभी तो समझो तुम । क्या बोलते हो ?

ज़िक्र तो हो

कभी उन सजती हुई दीवारों पर मेरी ज़िक्र तो हो, माँ हूँ तुम्हारी कभी तुझे मेरी फिक्र तो हो, अपनी ज़िंदगी जप तप से तुझपे कर दिया कुर्बान कभी तो उसकी भी इस पन्नो पर ज़िक्र तो हो, माना कि वो तुम्हारी हमसफ़र है, मगर इस सफ़रनामा का भी तो तुम्हे फिक्र हो कभी उन सजती हुई दीवारों पर मेरी ज़िक्र तो हो।

छाँव में

कभी उन सजती हुई दीवारों पर मेरी ज़िक्र तो हो, माँ हूँ तुम्हारी कभी तुझे मेरी फिक्र तो हो, अपनी ज़िंदगी जप तप से तुझपे कर दिया कुर्बान कभी तो उसकी भी इस पन्नो पर ज़िक्र तो हो, माना कि वो तुम्हारी हमसफ़र है, मगर इस सफ़रनामा का भी तो तुम्हे फिक्र हो कभी उन सजती हुई दीवारों पर मेरी ज़िक्र तो हो।

लहर प्रेम की

शांत, शिथिल फिर लहरदार तेरी अदा, किसी समंदर की लहरों सी थी,  जिसपर मैं मर मिटा था, मैं तेरे प्रेम में उस नाव की तरह धारा के साथ-साथ बहता गया, टकराता गया चट्टानों से, कुछ टूटा, कुछ बिखरा तेरे ख्याबो में, कुछ देर बाद सम्भल गया जैसे लहरें शांत होती।

एक ख्वाब

तेरे ख्वाब से रूबरू जब भी हुआ, एक एहसास दिल मे दफ़्न होती चली गई, तू पास होते-होते भी दूर चली गयी जब भी आईना देखता हूं, वो एहसास निकल पड़ती है और कहती है तुम किसी काम के नही ।