चलती बस, सुनसान सड़कें, हवाओं से बातें करता मेरा शरीर और मन पल में उमड़ते ख्याल, दिखते हालात लोगों के फागुन के धुन मन को करते तृप्त वही बीच-बीच मे दस्तक देते क़ई सवाल आखिर ये सड़क जाती कहाँ है जिधर मैं जा रहा हूँ उधर या सड़क जिधर जा रही उधर जा रहा हूँ मैं ? क्या ज़िन्दगी वीरान रातें लेकर गुज़ारी जा सकती है ? पनपते खंडहर पर पौधें, रिसते पानी रातें वीरान है ! ढहता ईंट, खुद का मिटाता अस्तित्व आखिर इशारा किस ओर है समय का क्या चाहता है ये समय मुझसे, तुमसे धरती पर रह रहे सभी जीव-जंतुओं से ? क्या इसका जवाब है किसी के पास ? क्या हर सवाल का जवाब है ? आखिर है तो किसके पास....
दिखाई दिए भी तो ऐसे जैसे चांद हो गए, चले भी गए तो ऐसे जैसे मरीचिका हो गए।