सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

kavita लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

यारी

ये जो रंगत है, ये जो संगत है ये तो तुम्हारे(मुस्कान) से है, तुम(किस्मत) कितना ज़ोर लगा लो, ये जो मुस्कान है, तुम सिर्फ कुछ पल के लिए ही रोक सकते हो मगर जानते हो समय और वक़्त सबका है, मुस्कान तो रहेगा जबतक रहेगी ये रंगत ये संगत ये जो यारी है बरसो पुरानी है तुम्हरे बिगड़ने से कुछ नही होगा कुछ देर अलग कर सकते हो मगर हम तो आएंगे नए रूप, नए रंग में, उस समय वक़्त भी मेरा होगा और वार भी, मुस्कान से रहेगी ये रंगत ये संगत ~~~~मिन्टू

शहर की ओर

मिट्टी की गलियों से होकर संक्रिर्ण पक्की गलियों तक जाना है जिसे लोग 'फर्श से अर्श' तक के नाम से जाना है, बाधाएं आएंगी  टांगे खीची जाएगी, मगर कछुए की चाल ही सही मुझे मिट्टी की गलियों से होकर संक्रिर्ण पक्की गलियों तक जाना है । ~~~~मिन्टू

शहर में गांव

ये गांव की दौलत आज शहरों में घुमक्कड़ी कर रही है लोग कहते है हमारा गांव मिट रहा है गांव के बचपन की दौलत समेटे हुए,  शहरों में उसको लुटाना कितना अच्छा होता है ना , जो मन मे दबाए इच्छा को आज निकलते देख रहा हूं जो शर्म से अंदर दफ़्न ख्वाइश है, उसे रोड पर उतरते देख रहा हूँ जो कभी गांव में खेला करता था वो ख़्वाब आज शहर में देख रहा हूँ तो ये तो अच्छा ही है ना, देखो न , ये मासूमियत को क्या पता कि ये बैंगलोर की सड़कों पर गांव के रंग बिखेर रहा है, कितनों की यादें ताज़ा कर रहा है सबसे अलग, मग्न होकर निकल रहा है ये तो अच्छा है ना गांव की दौलत शहरों में घुम्मकड़ी कर रही है। ~~~मिन्टू Pic- sarita sail

माँ प्रेम 5

-तुम छोड़ गई माँ उस आँगन में,  जिसे  सजाया था, जिसे सींचा था अपने कर्मो से, अपने बलिदान से, अपने अश्को से, और कह गयी थी मैं न रहूं तो जीना सीख लेना वर्तमान के हालतों में कुछ सीख लेना हुनर वर्तमान के हालातों में

प्यासा हूँ

इश्क़ का तो पता नही मगर इश्क़ की तलाश में भटकता राही हूँ, हर किसी से मिल जाता हूँ इश्क़ हूँ फरेबी नहीं, राही इश्क़ से जानिए या इश्क़ से बस प्यासा हूँ प्यासा हूँ प्यास हूँ

तुम तक

तुम्हारी नामौजूदगी में हमने साहित्य को चुन लिया, अब तो इसी से हर बाते होती है, शिकवे, गिले, और इश्क़ भी, मगर जानती हो, इस तक पहुँचने के लिए भी न मुझे तुमसे होकर गुजरना ही पड़ता है, और मेरा इश्क़ हर रोज़ जवां हो उठता  है।

त्याग

बाबा जो ऐसे देखन मैं रोज़ पढने को जाई उसे कितनी पीड़ा सही ये एहसास मोहे रास न आयी, मैं पढ़ के जग नाम कमाऊ बाबा ये आश लगायी उसे कितनी पीड़ा सही ये एहसास मोहे रास न आयी।

चुपके से

अच्छा सुनो ये जो तुम चुपके चुपके मेरे वॉल पढते हो न इश्क़ की पहली सीढ़ी है थोड़ा सम्भल कर चढ़ना कही गिर गए न तो ..... तो क्या... तो मैं भी गिर जाऊंगी... समझे तुम... और हां सुनो.. जब एक बार आ जाओगे न तो जाना नही छोड़ कर.... वैसे भी सब चले जाते है ...... अगर तुम गए न तो मेरी साँसे भी लेते जाना ... समझे तुम...

गिरना

क्यूँ शोहरत के शाख से ही क्यों नज़रों से भी तो गिरते है लोग चरित्र से भी तो गिरते है मगर इनका गिरना , गिरना नही होता क्या ? चढ़ने के लिए गिरते ही है लोग अब धीरे से हो या तेज़ी से शायद इसमें थोड़ी बहुत ठहराव आ जाये तो शायद बच सकते है शोहरत शाख से भी और नज़रों से भी

रचना काव्य की

तुम खुद एक काव्य हो और काव्य की रचना करना कितना अच्छा होता है न, न जाने कितने सवालों के घेरो से तुम्हें होकर जाना होता सबका ख्याल रखना होता , खुद का भी और काव्य का भी देखो तो कितना सुंदर लगता जब कोई काव्या, एक काव्य के रचना करती है तो मानो जैसे धरती पर चांद उत्तर आया हो अच्छा सुनो, तुम न ऐस ही लिखते रहना रचना करते रहना सबकी , अपनी और मेरी भी । ये जो शब्दों से पिरोकर तुम एक माला बनाती हो न वो अपने आप मे ही एक अनूठा रचना होती है और इस रचना को पढ़कर न जाने कितने लोग दोनों के दीवाने हो जाते है,तुम ऐसे ही रचते रहना, गढ़ते रहना नई नई रचनाओ को अपने अंदर और फिर एक नई काव्य की रचना करना। ठीक है न ।

आवारगी

आवारगी की भी हद थी न तो अपना जाना न पराया जिसने सिखाया था चलना आज उसी की कर बैठा अवहेलना मन की चेतना कही मर मिटी है उसकी तभी तो पल पल आवारगी में वो सब भूल बैठा है कौन अपना कौन पराया

बातों का सिलसिला

बातों का सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा जबतक सफर में रहूँगा धीरे-धीरे आहिस्ता-आहिस्ता तेरे करीब आकर तुझसे बहुत कुछ कहूँगा जबतक......... कबतक दूर जाओगे मुझसे , तेरी बातें तेरी ख़्वाब के साथ आता जाता रहूँगा जबतक ........ नदी की धार जैसी, झरनों की धार जैसी तुम्हे छूता हुआ आता जाता रहूँगा जबतक सफर में रहूँगा

सिगरेट जैसी तुम

मैं किसी सिगरेट सा, तुम किसी धुंआ सी मैं तुझको पीता गया तू कुछ उड़ी कुछ  अंदर ही अंदर गलाते गयी मैं पीता रहा मैं पीता रहा और देख मेरी क्या हालात हो गयी। तू जीते रही मैं मरता गया..... ~~~मिन्टू

इज़ाज़त

बैठे है हम वहाँ, जहाँ तेरी अनुमति की ज़रूरत है अगर दे सको कुछ देर और ठहरने की इजाज़त तो हम कुछ कलाकृति प्रस्तुत करेगें, कुछ तस्वीर बनेगी मेरी कुछ तस्वीर बनेगी तेरी दो अधूरे तस्वीर को पूरा करने की स्वीकृति तो दो जैसे शिव और पार्वती की बनी थी अंतर्मन से, पवित्र और पाक।

काव्यांजलि

प्रेम चलते चलते कविता के पास आई, कविता उदास सी बैठी कहानी के पास गई हुआ कुछ यूं उन्हें पसंद न आई कोई गाना तो वो बच्चों संग रंग में रंग गयी तन से न थकी , पर मन से थक गई उसे मिला एक ख्याब जो हमेशा लिपटा रहता था चंदन के साथ और चंदन की गमक इतनी तेज उसके पास और भी लोग आये और हुई फिर एक काव्य की रचना जिसे हम काव्यांजलि के नाम से जानते है

रचना तुम्हारी

वो लठ थी वो हठ थी वो मेरे मन की मठ थी मठ में रहता था उसका प्रेम, उसका जीवन रस, मठ में रहता था एक योगी जिसको प्रेम था उस मठ पर राज करती राजकुमारी से धीरे धीरे ये बढ़ता गया निरंतर बिना स्वार्थ के अनंत तक और मन के मठ  में एक विशालकाय रूप बन बैठा था उसकी हठ , उसकी लत वो मन की मठ.....

तस्वीर बनाने की कोशिश

जो कभी  छोड़ गयी थी तन्हा, आज तेरी तस्वीर भी बगावत कर गयी, बनाना चाहता था उस रात की तरह तुझे, मगर देखो न तुम न बन पायी  उस रात की तरह । ~~~~मिन्टू

एक ख्वाब

तेरे ख्वाब से रूबरू जब भी हुआ, एक एहसास दिल मे दफ़्न होती चली गई, तू पास होते-होते भी दूर चली गयी जब भी आईना देखता हूं, वो एहसास निकल पड़ती है और कहती है तुम किसी काम के नही ।