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संदेश

वो पागल लड़की

पागल सी लड़की, कोमल, नाज़ुक सी आँखों से करती थी वो शिकार अपने महबूब का, जुल्फों से फसा लेती थी, करती थी होंठो से घायल लफ़्ज़ों से चलाती थी खंजर अपने महबूब पर वो पागल सी लड़की, जब भी करती थी  सोलहों श्रृंगार मचलने लगते थे सरफिरे आशिक़ मछलियों की तरह, कोमल अदा की अदाकारा थी वो जो सजाते रहती थी शब्दो से दिल की बात कोरे कागज पर, जो लिखा करती थी अपने महबूब के नाम खत, वो पागल सी लड़की, कर देती थी अपनी मुस्कान से वार होते थे कई कायल उनके तो कई मर-मिटने को होते थे तैयार, जब भी पहनती थी हल्की कोई रंग के वस्त्र, भूल जाते थे सब कोई इश्क का मंत्र, सुध-बुध खो जाते थे सब जब देखा करते थे उसे राह में थी वो अपनी शहर की एक कली रहती थी गुमनाम मगर उसके भी होते थे नाम कई के होंठो पर तो कई के दिलो पर वो पागल सी लड़की आज भी किसी के इंतजार में खोती जा रही है अपना वजूद, अपना नाम, अपना काम.....

तन्हा हूँ

जब तुम्हारे दिल मे कुछ नही तो मेरी इतनी फिक्र क्यूँ ? मैं तो आज भी अकेला हुँ अगर तुम चाहो तो मेरा हाथ थाम सकती हो मुझे अपना बना सकती हो बस विश्वास रखना होगा तुम्हे की मैं आज भी अकेला हूँ... मैं ये नही कर रहा कि मैं बहुत अच्छा हूं हो सकता है मेरे बातों से मेरे स्वभाव से तुम्हे प्यार हो जाये मगर ये मत कहना कि इश्क ऐसे नही होता, ये मत कहना कि मिले हुए चार दिन तो हुए है और प्यार  कैसे हो गया ये तो  दो पल की एहसास है जो समझ लो तो प्यार ही प्यार है नही तो कुछ नही.... हाँ मगर इतना ज़रूर कहूंगा कि मैं तुम्हे पसन्द करने लगा हूँ... और मैं आज भी अकेला हु अगर तुम साथ चल सको और मुझपर विश्वास रखो तो मैं सारी उम्र तुम्हे सजा कर रखूंगा, मैं तुम्हे अपना अंग बनाकर रखूंगा, मैं तुम्हे चाहता रहूँगा क्यों कि चोट खाया इंसान वो हर पल के दर्द, प्यार को समझ सकता है अगर जो कभी न समझ पाया तुम्हे  तो बस तुम मुझे भर लेना अपनी बाहों में बना लेना मुझे अपने अज़ीज़, अपना अंग, अपना प्रेम...... क्यों कि मैं आज भी अकेला हूं तन्हा हूँ ।

कुछ न लिखो

कुछ न लिखो, चंद ख़्वाब लिखो, चंद छंद लिखो, चंद अल्फ़ाज़ लिखो, कुछ हाल लिखो, कुछ चाल लिखो, कुछ पुरानी कुछ नई सवाल लिखो,  बस लिखो गुलाल ज़िन्दगी के, कुछ न लिखो, चंद प्यार, चंद तकरार लिखो, चंद सपने , कुछ अपने लिखो, ज़िन्दगी से जुड़े सारे वो पल लिखो, लिखो माँ का आँचल, लिखो पिता का सहारा, लिखो बहना का प्यार, कुछ मुझे लिखो, कुछ घर-परिवार की लिखो कुछ न लिखो चंद ख़्वाब लिखो, चंद छंद लिखो लिखो तुम कुछ घर-परिवार लिखो ।

प्रिये

वो मेरी सुर थी वो मेरी लय थी वो मेरी गीत थी मेरी संगीत थी, वो मेरी नृत्य थी मेरी नृत्यांगना थी, वो छेड़ जाया करती थी अक्सर मुझे मैं बन जाया करता था उसका वाद्ययंत्र, रम जाया करता था उसके संग-संग बनते-बिगड़ते एक नए सुर में पहचान बनती एक नए रंग रूप में ऐसी थी मेरी प्रिये

सादगी वाली लड़की

उसकी आवाज़ मधुर है, वो अदाओं से भरपूर है रहती तो गंगा तट पर है मगर हल्का सा भी न गुरूर है न गुमान है वो सुंदर है, सुशील है सब से अनोखी, अलबेली है, खुद में मस्तमॉली, छरहरी ,नाजूक, छुईमुई सी है उसके जुल्फों जब भी चूमि है उसको गालों को, झलकती है मुस्कान और सादगी, जो भरपूर है ,भोली है मगर सबकी चहेती बोली है वो गंगा तट की छोरी है वो अनोखी अलबेली है उसकी बातों से झलकती मासूमियत, प्यार है वो अपने आँगन की खुशबूदार पेड़ है देती है छांव करती है रखवाली मृदा की वो अनोखी अलबेली वो गंगा तट की छोरी है ।

एक पहाड़न

वो जानती है कि मुझे कैसे मनाना है वो हर बार जीत जाती है मेरी हार से खुद को बदनाम न कर मेरा नाम कर जाती है ये वही सुनहरे बालो वाली लड़की है, जो उस रात मिली थी मुझे पीपल पेड़ के पास, कुछ आस लिए, कुछ ख्याब लिए टूटना जानती है वो म गर जुड़ने के लिए उसे किसी का साथ चाहिए, वो रहना चाहती है सबके साथ मगर उसे उसकी तन्हाई ने रहने नही दिया, मान रखना जानती है वो सबका मगर उसे किसी ने समझा ही नही आजतक, वो वही लड़कीं है पहाडोवाली जो जुगनुओं सी रात भर जगी रहती है मगर आंखों में टिमटिमाते तारो की झलक की जगह मोतियों जैसी बूंद रहती है पानी की, ये वही कोमल कली है, खुशबूओं से भरी, गुलमोहर सी चमक वाली, महफ़िल लूट ले जाने वाली, खुले मन की,  स्वतंत्र विचार की, पहाडोवाली लड़कीं न जाने कौन सी मिट्टी की बनी है ये शायद कुछ अंश है चट्टानों वाली, नमी है , हरियाली है, ठंडक है इसकी आंखों में, मगर जैसी भी है , है तो हिम्मत वाली क्यों कि ये वही लड़कीं है पहाड़ोवाली पहाड़ोवाली.....

झुमके वाली लड़की

उसके बाल बिखरे थे, माथे पर बिंदी कानों पे झुमके थे, गाल मख़मली सी, होंठो पर हल्की मुस्कान थी कत्थई साड़ी में जब वो राह चल रही थी गुलाबो के पत्ते बिखेरते हुए, लटक झटक कर वो बहुत खूबसूरत लग रही थी पाँव में पायल, चाल में हल्की शरारत लेकर जब वो ठुमक-ठुमक चल रही थी, मेरी आँखें थोड़ी अड़ गयी थी उसपर मैं हो चला दीवाना था उसका शायद वो मेरे शहर जैसी ही थी सुंदर, स्वच्छ, निर्मल, पवित्र वो मेरी झुमके वाली थी.. जब भी बिखेरती थी जलवा अपने अल्फाज़ो से न जाने कितने आह-वाह की तान छेड़ जाते थे, कई चुरा लेते थे उसके अल्फ़ाज़ तो कई उसके राह कदम पर चल पड़ते थे जो भी थी वो जैसी भी थी वो मेरी झुमके वाली थी वो मेरी झुमके वाली थी ।