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संदेश

यारी

ये जो रंगत है, ये जो संगत है ये तो तुम्हारे(मुस्कान) से है, तुम(किस्मत) कितना ज़ोर लगा लो, ये जो मुस्कान है, तुम सिर्फ कुछ पल के लिए ही रोक सकते हो मगर जानते हो समय और वक़्त सबका है, मुस्कान तो रहेगा जबतक रहेगी ये रंगत ये संगत ये जो यारी है बरसो पुरानी है तुम्हरे बिगड़ने से कुछ नही होगा कुछ देर अलग कर सकते हो मगर हम तो आएंगे नए रूप, नए रंग में, उस समय वक़्त भी मेरा होगा और वार भी, मुस्कान से रहेगी ये रंगत ये संगत ~~~~मिन्टू

सोच- गली की

मैं निकला था गलियों में पहले जैसा दौर लाने को, मगर बदनामियों के जंजीर ने मेरे पैर जकड़ लिए, सोचा समझा दु उन्हें , हालाते-ए-मंजर शहर की मगर सोचें-ए-परिंदे उनके उड़ते चले गए, ऐसा नही की वो नासमझ है मगर वो नासमझी के शिकार होते चले गए । ~~मिन्टू

बिखरते उम्मीद

उम्मीदों की गांठ बाँधे, मंज़िल को चल दिये साधे, टूटता , बिखरता, तड़पता हुआ फरेब की गलियों से होता पहुंचा हुँ तुम्हारे पास, और तुम कहती हो तुम किसी काम से नही । तमाम उम्र, खुद को झोंक दिया इश्क़ की भट्टी में, घूमता रहा तेरे इर्द-गिर्द तितलियों की तरह, और तुम कहती हो किसी काम के नही । कभी जो तुम्हे अकेला छोड़ गए थे सब बस सहारा बना था मैं , अजनबी होकर भी अपना माना था तुम्हें और तुम कहती हो किसी काम के नही । ~~मिन्टू

राहें - ज़िन्दगी की

कभी टूटते तो कभी जूझते हालातो से, कभी झड़ते तो कभी बिखरते उम्मीदों से, सीखा है बहुत कुछ इन सब राहों से, क्या कभी तुम भी आओगी इन राहों पर अपने कोमल पाँव लेकर ? तुम्हारे लिए भी तो गया हुँ इन राहों से आँसुओ के साथ, टूटते जज़्बातों के साथ बदनामियों  के साथ... क्या कभी तुम भी आओगी इन राहों पर अपने कोमल पाँव लेकर ? नाउम्मीदी से , नफ़रतों से , सुनापन से गहरा नाता रहा है, जो इन राहों को सजाए रखता है, क्या कभी तुम भी आओगी इन राहों पर अपने कोमल पाँव लेकर ? ~~~मिन्टू

शहर की ओर

मिट्टी की गलियों से होकर संक्रिर्ण पक्की गलियों तक जाना है जिसे लोग 'फर्श से अर्श' तक के नाम से जाना है, बाधाएं आएंगी  टांगे खीची जाएगी, मगर कछुए की चाल ही सही मुझे मिट्टी की गलियों से होकर संक्रिर्ण पक्की गलियों तक जाना है । ~~~~मिन्टू

शहर में गांव

ये गांव की दौलत आज शहरों में घुमक्कड़ी कर रही है लोग कहते है हमारा गांव मिट रहा है गांव के बचपन की दौलत समेटे हुए,  शहरों में उसको लुटाना कितना अच्छा होता है ना , जो मन मे दबाए इच्छा को आज निकलते देख रहा हूं जो शर्म से अंदर दफ़्न ख्वाइश है, उसे रोड पर उतरते देख रहा हूँ जो कभी गांव में खेला करता था वो ख़्वाब आज शहर में देख रहा हूँ तो ये तो अच्छा ही है ना, देखो न , ये मासूमियत को क्या पता कि ये बैंगलोर की सड़कों पर गांव के रंग बिखेर रहा है, कितनों की यादें ताज़ा कर रहा है सबसे अलग, मग्न होकर निकल रहा है ये तो अच्छा है ना गांव की दौलत शहरों में घुम्मकड़ी कर रही है। ~~~मिन्टू Pic- sarita sail

तेरी ओर

न जाने क्यूँ न चाहते हुए भी खिंचा चला आ रहा तेरी ओर, अपनी मंज़िल से भटकता हुआ, ठोकर खाता हुआ, कुछ अल्फ़ाज़ निकालते हुए, तो कुछ रचना करते कविताओं की जो अक्सर तेरे होने का सवाल छोड़ जाता है । ~~मिन्टू